1948 में संयुक्त राष्ट्र की आम सभा में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ''यूरोप की समस्याओं के समाधान में मैं भी समान रूप से दिलचस्पी रखता हूँ. लेकिन मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि दुनिया यूरोप के आगे भी है. आप इस सोच के साथ अपनी समस्या नहीं सुलझा सकते हैं कि यूरोप की समस्या ही मुख्य रूप से दुनिया की समस्या है.''
नेहरू ने कहा था , ''समस्याओं पर बात संपूर्णता में होनी चाहिए. अगर आप दुनिया की किसी एक भी समस्या की उपेक्षा करते हैं तो आप समस्या को ठीक से नहीं समझते हैं. मैं एशिया के एक प्रतिनिधि के तौर पर बोल रहा हूँ और एशिया भी इसी दुनिया का हिस्सा है.''
भारत के मौजूदा विदेश मंत्री एस जयशंकर यूक्रेन पर रूस के हमले के मामले में भारत का पक्ष बहुत ही आक्रामक तरीक़े से रखते रहे हैं.
2022 के जून महीने में एस जयशंकर ने स्लोवाकिया की राजधानी ब्रातिस्लावा में एक कॉन्फ़्रेंस में कहा था, ''यूरोप इस मानसिकता के साथ बड़ा हुआ है कि उसकी समस्या पूरी दुनिया की समस्या है, लेकिन दुनिया की समस्या यूरोप की समस्या नहीं है.''
भारत की विदेशी नीति और भारत का एक साथ ब्रिक्स और क्वॉड दोनों में होना इन दोनों बयानों में निहित है.
ब्राज़ील, रूस, इंडिया, चाइना और साउथ अफ़्रीका के गुट को ब्रिक्स कहा जाता था, लेकिन इस साल जनवरी में इस समूह का विस्तार हुआ और इसमें मिस्र, इथियोपिया, ईरान, सऊदी अरब के साथ यूएई भी शामिल हुए.
ब्रिक्स को चीन और रूस के दबदबे वाला समूह माना जाता है. चीन, रूस और ईरान खुलकर पश्चिम विरोधी बातें करते हैं.
दूसरी तरफ़ सऊदी अरब, यूएई और मिस्र पश्चिम और चीन के बीच संतुलन बनाकर रखते हैं. मिसाल के तौर पर भारत और ब्राज़ील को छोड़कर सभी ब्रिक्स सदस्य चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई में शामिल हैं.
ब्राज़ील भले चीन की बीआरआई परियोजना में शामिल नहीं है, लेकिन 2022 में लूला डा सिल्वा के राष्ट्रपति बनने के बाद से संबंध गहरे हुए हैं. ब्राज़ील के कुल निर्यात का एक तिहाई चीन को होता है.
लेकिन सभी ब्रिक्स सदस्य देशों में भारत एकमात्र देश है, जो पश्चिम से रणनीतिक साझेदारी मज़बूत कर रहा है और चीन से तनावपूर्ण संबंध को लेकर भी संतुलन बनाए हुए है.
भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर है. दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका है और दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्था चीन है.
BBC बीबीसी हिंदी के व्हॉट्सऐप चैनल से जुड़ने के लिए करेंभारत एक तरफ़ इंडो-पैसिफिक में चीन से मुक़ाबले के लिए क्वॉड में है तो दूसरी तरफ़ ब्रिक्स में भी है. ब्रिक्स और क्वॉड के लक्ष्य बिल्कुल अलग हैं. ब्रिक्स पश्चिम के प्रभुत्व को चुनौती देने की बात करता है और क्वॉड को चीन अपने लिए चुनौती के तौर देखता है.
जर्मन प्रसारक डीडब्ल्यू से जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स के डीन श्रीराम चौलिया ने कहा, ''जब ब्रिक्स का विस्तार नहीं हुआ था तब तक यह बातचीत का चौपाल था.''
''ऐसे में भारत के लिए रणनीतिक और आर्थिक तौर पर हासिल करने के लिए बहुत कुछ नहीं था. लेकिन अब ब्रिक्स का विस्तार हो चुका है और यहाँ एक किस्म की प्रतिस्पर्धा है. ऐसे में हम नहीं चाहते हैं कि ब्रिक्स का पूरा स्पेस चीन को सौंप दिया जाए.''
विस्तार के बाद ब्रिक्स के पास वैश्विक जीडीपी का 37 फ़ीसदी हिस्सा है जो कि यूरोपियन यूनियन की जीडीपी से दोगुना है.
चौलिया ने डीडब्ल्यू से कहा, ''चीन चाहता है कि ब्रिक्स प्लस पश्चिम के ख़िलाफ़ डटकर खड़ा रहे लेकिन जिस तरह से विस्तार हुआ है, उसमें चीन का मक़सद हासिल होता दिख नहीं रहा है. क्या ब्रिक्स को वैसे देशों से मज़बूती मिलेगी जो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ़ की मदद से चल रहे हैं?''
''यह गुट क़र्ज़ मांगने वाले देशों का समूह बन जाएगा न कि एक दूसरे को मदद करने वालों का. मुझे लगता है कि ब्रिक्स के भीतर भी प्रतिस्पर्धा होगी न कि चीन का पूरी तरह से दबदबा होगा. यहाँ तोलमोल की पर्याप्त गुंजाइश होगी.''
हाल ही में चीन ने पाकिस्तान को ब्रिक्स में शामिल करने का समर्थन किया है. रूस ने भी तत्काल पाकिस्तान की सदस्यता का समर्थन कर दिया. लेकिन भारत भी ब्रिक्स का संस्थापक सदस्य है और बिना भारत के समर्थन के पाकिस्तान का गुट में आना आसान नहीं है.
भारत अब किसी खेमे का बनकर नहीं रहना चाहता है. भारत की विदेश नीति की बुनियाद गुटनिरपेक्ष रही है. अब भारत गुटनिरपेक्ष के बदले बहुपक्ष की बात करता है. यानी भारत अपने हितों के हिसाब से सभी पक्षों के साथ रहेगा.
भारत का ब्रिक्स और क्वॉड में होना विरोधाभासी तो लगता है, लेकिन पश्चिम को भी ये बात पता है कि भारत के ब्रिक्स में होने से उसे कोई नुक़सान नहीं है और रूस को भी पता है कि भारत के क्वॉड में होने से उसके हितों के साथ समझौता नहीं होगा.
हालांकि पश्चिम और रूस दोनों भारत के क्वॉड और ब्रिक्स में होने पर अपनी असहजता ज़ाहिर करते रहे हैं. क्वॉड में भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान हैं.
रूस के विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोफ़ ने 2021 में क्वॉड को लेकर कहा था, "पश्चिम एकध्रुवीय विश्व बहाल करना चाहता है. लेकिन रूस और चीन के उसके मातहत होने की संभावना कम है. भारत अभी इंडो-पैसिफ़िक में पश्चिमी देशों की चीन-विरोधी नीति का एक मोहरा बना हुआ है."
रूस के इस बयान से समझा जा सकता है कि अमेरिका से भारत की बढ़ती क़रीबी उसे परेशान करने वाली होती है.
वहीं, भारत के ब्रिक्स और रूस के साथ क़रीबी को लेकर अमेरिका अपनी असहजता ज़ाहिर करता रहा है.
अंग्रेज़ी अख़बार द हिन्दू के अंतरराष्ट्रीय संपादक स्टेनली जॉनी ने लिखा है, ''पिछले चार सालों में कई पश्चिम के विश्लेषकों और अधिकारियों ने भारत को अपने पाले में लाने के लिए चीन कार्ड का इस्तेमाल किया. पश्चिम को यह बात पसंद नहीं है कि भारत अपनी पसंद की विदेश नीति पर आगे बढ़े.''
स्टेनली जॉनी ने लिखा है, ''पश्चिम यह नैरेटिव गढ़ने की कोशिश करता है कि चीन और रूस दोनों एक हैं. बाइडन प्रशासन में दलीप सिंह डिप्टी एनएसए हैं. उन्होंने अप्रैल 2022 में यूक्रेन पर रूसी हमले के कुछ हफ़्तों बाद कहा था- अगर चीन सरहद पर वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करता है तो भारत की सुरक्षा में रूस आगे नहीं आएगा.''
जॉनी ने लिखा है, ''इसी साल जुलाई में पीएम मोदी मॉस्को से वापस आए तो बाइडन प्रशासन के एनएसए जैक सुलिवन ने कहा- 'रूस पर लंबे समय तक दांव लगाना किसी भी लिहाज़ से समझदारी नहीं है. रूस चीन के क़रीब आ रहा है. यहाँ तक कि रूस चीन का जूनियर पार्टनर बन गया है. ऐसे में रूस किसी भी हाल में चीन के साथ होगा न कि भारत के साथ.'
''पश्चिम से भारत को लेकर ऐसी सलाह की कमी नहीं है. दिलचस्प यह है कि रूस में पीएम मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पाँच सालों बाद द्विपक्षीय बातचीत हुई. इसके ठीक पहले भारत ने घोषणा की थी कि एलएसी पर दोनों देश पट्रोलिंग को लेकर एक समझौते पर पहुँच गए हैं.''
कई विशेषज्ञों का मानना है कि भारत के लिए रूस से रिश्तों में संतुलन बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है. रूस से अच्छे रिश्ते में भारत का हित सीधा जुड़ा है. रक्षा ज़रूरतें, मध्य एशिया और ऊर्जा के मामले में रूस से अच्छा संबंध होना अनिवार्य है.
भारत को मध्य एशिया पहुँचना है तो ईरान के ज़रिए ही पहुँच सकता है. रूस के बिना भारत के लिए मध्य एशिया पहुँचना आसान नहीं है क्योंकि रूस का ईरान और मध्य एशिया में ख़ासा प्रभाव है.
@narendramodi क़रीब पाँच साल बाद रूस के कज़ान में मिले पीएम मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग पश्चिम के दबाव को ख़ारिज करने का साहसडीडब्ल्यू से भारत के विदेश मंत्रालय में आर्थिक संबंधों के सचिव रहे राहुल छाबड़ा ने कहा, ''ईरान, सऊदी अरब और यूएई के आने से 40 प्रतिशत तेल व्यापार ब्रिक्स के हिस्से में आ गया है. अगर ब्रिक्स देश भुगतान के लिए कोई अपना प्रबंध कर लेते हैं तो इसका बड़ा असर होगा.''
''ज़ाहिर है इसका बड़ा फ़ायदा चीन को होगा लेकिन भारत को भी होगा. बहुपक्षीय दुनिया में हर प्लेटफॉर्म ज़रूरी है और भारत अपने हितों को साधने के लिए हर प्लेटफॉर्म पर है.''
भारत जितनी आक्रामकता से पश्चिम के दबाव को ख़ारिज कर रहा है, उसकी बुनियाद क्या है?
कई लोगों का मानना है कि भारत का यह रुख़ नया नहीं है, भले कहने का अंदाज़ आक्रामक हुआ है.
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विदेश नीति की बुनियाद गुटनिरपेक्षता में रखी थी. उसके बाद की जितनी सरकारें आईं सबने इस नीति का पालन अपने-अपने हिसाब से किया है.
हंगरी में सोवियत यूनियन के हस्तक्षेप के एक साल बाद 1957 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने संसद में बताया था कि भारत ने क्यों इस मामले में यूएसएसआर की निंदा नहीं की.
नेहरू ने कहा था, ''दुनिया में साल दर साल और दिन ब दिन कई चीज़ें घटित होती रहती हैं, जिन्हें हम व्यापक रूप से नापसंद करते हैं. लेकिन हमने इनकी निंदा नहीं की है क्योंकि जब कोई समस्या का समाधान खोज रहा होता है तो उसमें निंदा से कोई मदद नहीं मिलती है.''
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