वाराणसी, 27 जून . स्वतंत्रता सेनानी, परोपकारी और साहित्यकार के साथ ही शिक्षा की अलख जगाने वाले क्रांतिकारी शिवप्रसाद गुप्त की 28 जून को जयंती है. 1883 में जन्मे गुप्त ने भारत के स्वाधीनता संग्राम को न केवल आर्थिक और संगठनात्मक तौर पर खड़ा करने में मदद की, बल्कि अपनी दूरदर्शिता से देश की सांस्कृतिक और शैक्षिक विरासत को भी समृद्ध किया. वाराणसी में स्थापित ‘महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ’ और ‘भारत माता मंदिर’ के निर्माण में ऐतिहासिक योगदान देने के साथ राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
शिवप्रसाद गुप्त का जन्म एक समृद्ध जमींदार परिवार में हुआ था, लेकिन उन्होंने अपनी संपत्ति और जीवन को स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दिया. वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे और महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, बाल गंगाधर तिलक और पंडित मदन मोहन मालवीय जैसे नेताओं के करीबी सहयोगी थे. शिव प्रसाद गुप्त का इन दिग्गजों से खास रिश्ता था. अक्सर ये नेता वाराणसी की यात्राओं के दौरान उनके आवास पर पहुंचते और आतिथ्य का लाभ उठाते थे.
आयरलैंड समेत दुनिया के कई हिस्सों की यात्रा कर चुके शिवप्रसाद गुप्त ने दो यात्रा वृत्तांत की रचना की, जिसमें एक ‘सर्बिया’ तो दूसरी ‘बुल्गारिया’ है.
साहित्यकार पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ आत्मकथा ‘अपनी खबर’ में लिखते हैं, “पंडित मदन मोहन मालवीय भी बाबू शिवप्रसाद गुप्त को मानते थे. वह काशी में उनके यहां ही ठहरते और उनका ही अन्न ग्रहण करते थे.”
उन्होंने 1920 में ‘आज’ नामक हिंदी दैनिक अखबार की स्थापना की, जो आज भी भारत का सबसे पुराना हिंदी समाचार पत्र है. यह अखबार स्वतंत्रता संग्राम को प्रोत्साहित करने और जनता में राष्ट्रीय चेतना जगाने का महत्वपूर्ण माध्यम बना. इसके अलावा, उन्होंने अकबरपुर में गांधी आश्रम के लिए जमीन भी दान की थी, जो स्वदेशी खादी के उत्पादन और बिक्री को बढ़ावा देने का केंद्र बना. 10 फरवरी, 1921 को बाबू शिवप्रसाद गुप्त और भारत रत्न डॉ. भगवान दास ने वाराणसी में काशी विद्यापीठ की स्थापना की, जिसे साल 1995 में ‘महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ’ नाम दिया गया. यह विश्वविद्यालय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान असहयोग आंदोलन का एक महत्वपूर्ण केंद्र था. महात्मा गांधी ने इसका उद्घाटन किया और इसे स्वराज और आत्मनिर्भरता के सिद्धांतों पर आधारित शिक्षा का प्रतीक बनाया.
1913-14 में जापान की यात्रा के दौरान एक स्वायत्त शैक्षिक संस्थान को देखकर प्रेरित हुए शिवप्रसाद ने भारत में ऐसी संस्था की स्थापना का संकल्प लिया, जो ब्रिटिश सरकार के नियंत्रण से मुक्त हो. असहयोग आंदोलन के दौरान जब गांधीजी ने ब्रिटिश संस्थानों का बहिष्कार करने का आह्वान किया, तब काशी विद्यापीठ उन युवाओं के लिए आश्रय स्थल बना, जिन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया था. यह विश्वविद्यालय आज उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े राज्य विश्वविद्यालयों में से एक है, जिसमें छह जिलों (वाराणसी, चंदौली, भदोही, मिर्जापुर, सोनभद्र, बलिया) के 50 से अधिक संबद्ध कॉलेज हैं, जहां कला, विज्ञान, वाणिज्य, कृषि, कानून, कंप्यूटिंग और प्रबंधन जैसे क्षेत्रों में पढ़ाई होती है.
शिवप्रसाद ने अपने दिवंगत भाई के सम्मान में ‘हर प्रसाद स्मारक निधि’ की स्थापना की थी, जिसके माध्यम से विद्यापीठ को आर्थिक सहायता मिली. यह संस्थान भारतीय समाजवाद और राष्ट्रीय आंदोलन का गढ़ बना, जहां शिक्षा के साथ-साथ स्वतंत्रता और समानता के विचारों को बढ़ावा दिया. देश और वाराणसी को शिवप्रसाद गुप्त की सबसे अनूठी देन महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ परिसर में स्थित ‘भारत माता मंदिर’ है. साल 1918 में शुरू और 1924 में तैयार हुए इस मंदिर का उद्घाटन 25 अक्टूबर, 1936 को महात्मा गांधी ने किया था. इस मंदिर की सबसे खास बात है कि पारंपरिक देवी-देवताओं की मूर्तियों के बजाय अखंड भारत का संगमरमर का नक्शा! इसमें अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार और श्रीलंका भी शामिल हैं.
इस नक्शे में नदियां, मैदान और समुद्र तटों का बारीकी से चित्रण किया गया है. यह मंदिर राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता संग्राम के प्रति समर्पण का प्रतीक है. इसका डिजाइन और निर्माण स्वतंत्रता सेनानी और वास्तुकार दुर्गा प्रसाद खत्री के मार्गदर्शन में हुआ, जो पुणे के विधवा आश्रम और ब्रिटिश संग्रहालय के नक्शों से प्रेरित था.
शिवप्रसाद गुप्त ने वाराणसी में ‘शिव प्रसाद गुप्त अस्पताल’ की स्थापना की, जो शहर का प्रमुख नागरिक अस्पताल है. इसके अलावा, उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए भी रुपए दिए थे. शिवप्रसाद गुप्त परोपकारी स्वभाव के व्यक्ति थे. पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने उनकी तारीफ में लिखा, “शिवप्रसादजी का पुण्य-प्रकाश सारे उत्तर प्रदेश में और उनकी खुशबू पूरे देश में फैली थी.
उनकी दूरदर्शिता ने काशी को राष्ट्रीय चेतना का केंद्र बनाया. 1928 में वाराणसी में आयोजित प्रथम राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए उन्होंने अपने निवास ‘सेवा उपवन’ में सभी व्यवस्थाएं कीं, जिसे प्रसिद्ध वास्तुकार सर एडविन लुटियंस ने डिजाइन किया था.” शिवप्रसाद गुप्त का जीवन सादगी और समर्पण का अनुपम उदाहरण था. अपनी संपत्ति और प्रभाव के बावजूद, उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक उत्थान को प्राथमिकता दी.
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एमटी/केआर
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