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जयंती विशेष: कलम से रचा गांव और समाज का सच, आजादी के लिए छोड़ी पढ़ाई, यह थे ताराशंकर बंद्योपाध्याय

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New Delhi, 22 जुलाई . 23 जुलाई… उपन्यासकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय को श्रद्धांजलि देने और उनके विशाल साहित्यिक योगदान को याद करने का दिन है. इसी दिन ताराशंकर बंद्योपाध्याय की जयंती है. वे न सिर्फ बंगाली साहित्य के एक स्तंभ थे, बल्कि भारतीय साहित्यिक परंपरा के लेखक थे. उनका लेखन ग्रामीण जीवन, सामाजिक बदलाव और स्वतंत्रता संग्राम के सरोकारों से गहराई से जुड़ा हुआ था. उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी अपने समय में थीं.

23 जुलाई 1898 को बीरभूम जिले के लाभपुर गांव में ताराशंकर बंद्योपाध्याय का जन्म हुआ. उनके पिता हरिदास और माता प्रभावती देवी थीं. 1916 में उन्होंने लाभपुर गांव से ही मैट्रिक परीक्षा पास की. उच्च शिक्षा के लिए वे कलकत्ता (कोलकाता) आए, जहां पहले सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ाई की और बाद में दक्षिणी सबअर्बन कॉलेज (वर्तमान आशुतोष महाविद्यालय) में अध्ययन किया. हालांकि, स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में छोड़नी पड़ी.

भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, कृति ‘धात्री देवता’ (1939) में ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ग्रामीण सुधार और उग्र राष्ट्रवाद की दो समानांतर धाराओं को उजागर किया, साथ ही यह भी बताया कि वे स्वयं इन दोनों आंदोलनों से कैसे जुड़े रहे.

कुछ समय बाद ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने स्वयं को साहित्य सृजन के लिए समर्पित करने का फैसला किया, जिसकी शुरुआत उन्होंने नाटक और काव्य रचनाओं से की. ताराशंकर का साहित्यिक योगदान बेहद प्रभावशाली रहा. उन्होंने ग्रामीण बंगाल के जीवन, समाज, संघर्ष और संस्कृति को अपनी रचनाओं में बेहतर ढंग से पेश किया. अपनी विशेष लेखनी के साथ ताराशंकर ने 65 से अधिक उपन्यास, 100 से अधिक कहानियां और नाटक लिखे.

‘गणदेवता’ उपन्यास के लिए उन्हें 1966 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. इससे पहले, उन्हें 1956 में ‘आरोग्य निकेतन’ उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें 1969 में पद्म भूषण से सम्मानित किया.

कहा जाता है कि 1971 में साहित्य के लिए ताराशंकर बंद्योपाध्याय का नाम नोबेल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, चिली के पाब्लो नेरूदा ने उस बरस यह पुरस्कार जीता. यह जानकारी 50 वर्षों बाद सार्वजनिक हुई. 1971 में ही ताराशंकर बंद्योपाध्याय का निधन हुआ था.

संस्कृति मंत्रालय पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार, लाभपुर स्थित उनका पैतृक आवास, जिसका नाम भी इसी उपन्यास ‘धात्री देवता’ के नाम पर रखा गया, लगभग 250 वर्ष पुराना है और अब एक संग्रहालय बन चुका है. यह संग्रहालय ताराशंकर बंद्योपाध्याय की तस्वीरों, निजी वस्तुओं और साहित्यिक विरासत को संजोए हुए है. साहित्य और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े इस महान व्यक्तित्व की स्मृति में निर्मित यह स्थल अब भी पुस्तक प्रेमियों और देशभक्तों को अपनी ओर आकर्षित करता है.

डीसीएच/केआर

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