महाराष्ट्र की महायुति सरकार ने गुरुवार को जिस तरह से OBC आरक्षण के लिए निर्धारित नॉन क्रीमी लेयर सीमा को लगभग दोगुना करवाने का संकेत दिया, उससे दो बातें बिल्कुल साफ हो गई हैं। एक तो यह कि सत्तारूढ़ NDA खेमा हरियाणा में मिली अप्रत्याशित जीत से बने उत्साहपूर्ण माहौल में एक पल भी गंवाए बगैर अपना पूरा ध्यान महाराष्ट्र चुनाव पर लगा चुका है। दूसरी बात यह कि हरियाणा के अनुभव की रोशनी में उसने यहां सबसे बड़ा दांव OBC समुदाय के वोटरों पर लगाने का फैसला किया है।हरियाणा की सीख : महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से ऐन पहले की गई इस घोषणा का हरियाणा में BJP को मिली जीत से ही नहीं, वहां अपनाई गई रणनीति से भी सीधा संबंध है। चुनाव से पहले के हालात हरियाणा में भी BJP के अनुकूल नहीं थे। वहां मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी ने इसी साल जून महीने में OBC समुदायों से जुड़े एक कार्यक्रम के दौरान नॉन-क्रीमी लेयर की सीमा बढ़ाने का वादा किया। कई एक्सपर्ट मानते हैं कि इस वादे ने अंदर ही अंदर इस समुदाय के वोटरों पर निर्णायक प्रभाव डाला। भूल सुधार का प्रयास : महाराष्ट्र की राजनीति के संदर्भ में देखें तो यह फैसला और ज्यादा अहमियत रखता है। यहां मराठा आरक्षण की मांग पिछले कुछ समय से खासी चर्चित रही है। लोकसभा चुनावों से पहले राज्य सरकार ने मराठा समुदाय को OBC कोटे के अंदर से ही रिजर्वेशन देने की घोषणा की थी। माना जाता है कि महायुति को इसका खामियाजा OBC वोटरों की नाराजगी के रूप में भुगतना पड़ा। इस लिहाज से महायुति सरकार के ताजा फैसले को लोकसभा चुनावों की गलती को दुरुस्त करने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है। माहौल बनाने में मदद : यह मांग कुछ कोनों से उठाई भी जा रही थी। आठ लाख की मौजूदा सीमा के कारण OBC परिवारों का एक बड़ा हिस्सा जो इस सीमा से थोड़ा ही ऊपर था, वंचित महसूस कर रहा था। आर्थिक तौर पर सशक्त न होने के बावजूद वह आरक्षण का फायदा नहीं उठा पा रहा था। अगर यह सीमा 15 लाख रुपये सालाना कर दी जाती है, और जैसा कि राज्य सरकार के स्तर पर संकेत दिया जा रहा है, संभवत: जल्दी ही कर भी दी जाएगी, तो ऐसे तमाम परिवार इससे प्रभावित होंगे। NDA को उम्मीद है कि इससे न सिर्फ उसे वोटों का फायदा होगा बल्कि अपने अनुकूल माहौल बनाने में भी सहायता मिलेगी। महज चुनावी : बहरहाल, चुनावी नफा-नुकसान से थोड़ा अलग हटकर देखें तो तय है कि इस तरह के दाव-पेच न तो अच्छे नीतिगत फैसलों को जन्म देते हैं और न ही आम लोगों के दीर्घकालिक हितों को पूरा कर सकते हैं। फिर भी अगर ये चुनाव-दर-चुनाव चलते चले आ रहे हैं तो इससे राजनीति की क्वॉलिटी ही नहीं वोटरों की प्रायॉरिटी भी रेखांकित होती है।
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