पीएम नरेंद्र मोदी का इस साल कनाडा में होने वाले G7 सम्मेलन में भाग नहीं लेना इस वैश्विक मंच के उद्देश्य और इसकी प्रासंगिकता के लिहाज से ठीक नहीं है। भारत दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी इकॉनमी है, ग्लोबल ग्रोथ में उसकी एक भूमिका है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र भी है। इसी वजह से पिछले कुछ वर्षों से उसे अमीर देशों के इस मंच पर जगह मिलती आई थी।
टूट गया सिलसिला: भारत साल 2019 से लगातार इस आयोजन का हिस्सा रहा है। फ्रांस से यह सिलसिला शुरू हुआ था, जो पिछले साल इटली तक जारी रहा। इटली में विशेष सत्र को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने सामाजिक असमानता को दूर करने और सभी के सहज उपलब्ध व सुरक्षित AI जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात की थी। भारत इस मंच का इस्तेमाल शांति, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वित विकास का संदेश देने के लिए करता रहा है।
चरमपंथियों का दबाव: G7, सात सबसे विकसित और औद्योगिक देशों का समूह है, लेकिन जिस तरह से कनाडा में बसे खालिस्तान समर्थकों ने इस बार अपना असर इस पर छोड़ा है, वह चिंता का सबब है। आयोजन की मेजबानी कनाडा के पास है, लेकिन अलगाववादियों ने वहां की नई सरकार पर दबाव बनाया था कि भारत को आमंत्रित न किया जाए। मार्क कार्नी का इस मामले में झुक जाना चरमपंथी ताकतों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय संघर्ष के लिए बड़ा झटका है। क्या भारत के बिना यह ग्रुप चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता, लोकतंत्र और पर्यावरण के मुद्दे पर टिका रह पाएगा?
उम्मीदों को झटका: मार्क कार्नी का कार्यकाल इस उम्मीद के साथ शुरू हुआ था कि भारत और कनाडा के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघल सकती है। अपने पूर्ववर्ती जस्टिन ट्रूडो के मुकाबले उन्होंने ज्यादा जिम्मेदार और सकारात्मक रवैया दिखाया था। चुनावी अभियान के दौरान उन्होंने माना था कि दोनों देशों के संबंध कई स्तरों पर महत्वपूर्ण हैं और समान विचारधारा वाले देशों के साथ व्यापारिक संबंधों में विविधता लाने की बात कही थी। पिछले हफ्ते जब विदेश मंत्री जयशंकर ने कनाडा की समकक्ष मंत्री अनीता आनंद से बात की, तो उसे भी अहम बदलाव माना गया था।
हितों के खिलाफ: G7 सम्मेलन कनाडा के लिए मौका था, जहां वह भारत के साथ संबंधों को सुधारने की शुरुआत कर सकता था। अमेरिका की तरफ से पड़ रहे प्रेशर को देखते हुए उसे नई दिल्ली के जैसे सहयोगियों की जरूरत है। लेकिन, घरेलू राजनीति से मजबूर कनाडा ने द्विपक्षीय रिश्तों ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय हितों को भी चोट पहुंचाई है।
टूट गया सिलसिला: भारत साल 2019 से लगातार इस आयोजन का हिस्सा रहा है। फ्रांस से यह सिलसिला शुरू हुआ था, जो पिछले साल इटली तक जारी रहा। इटली में विशेष सत्र को संबोधित करते हुए पीएम मोदी ने सामाजिक असमानता को दूर करने और सभी के सहज उपलब्ध व सुरक्षित AI जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात की थी। भारत इस मंच का इस्तेमाल शांति, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समन्वित विकास का संदेश देने के लिए करता रहा है।
चरमपंथियों का दबाव: G7, सात सबसे विकसित और औद्योगिक देशों का समूह है, लेकिन जिस तरह से कनाडा में बसे खालिस्तान समर्थकों ने इस बार अपना असर इस पर छोड़ा है, वह चिंता का सबब है। आयोजन की मेजबानी कनाडा के पास है, लेकिन अलगाववादियों ने वहां की नई सरकार पर दबाव बनाया था कि भारत को आमंत्रित न किया जाए। मार्क कार्नी का इस मामले में झुक जाना चरमपंथी ताकतों के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय संघर्ष के लिए बड़ा झटका है। क्या भारत के बिना यह ग्रुप चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ अपनी प्रतिबद्धता, लोकतंत्र और पर्यावरण के मुद्दे पर टिका रह पाएगा?
उम्मीदों को झटका: मार्क कार्नी का कार्यकाल इस उम्मीद के साथ शुरू हुआ था कि भारत और कनाडा के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघल सकती है। अपने पूर्ववर्ती जस्टिन ट्रूडो के मुकाबले उन्होंने ज्यादा जिम्मेदार और सकारात्मक रवैया दिखाया था। चुनावी अभियान के दौरान उन्होंने माना था कि दोनों देशों के संबंध कई स्तरों पर महत्वपूर्ण हैं और समान विचारधारा वाले देशों के साथ व्यापारिक संबंधों में विविधता लाने की बात कही थी। पिछले हफ्ते जब विदेश मंत्री जयशंकर ने कनाडा की समकक्ष मंत्री अनीता आनंद से बात की, तो उसे भी अहम बदलाव माना गया था।
हितों के खिलाफ: G7 सम्मेलन कनाडा के लिए मौका था, जहां वह भारत के साथ संबंधों को सुधारने की शुरुआत कर सकता था। अमेरिका की तरफ से पड़ रहे प्रेशर को देखते हुए उसे नई दिल्ली के जैसे सहयोगियों की जरूरत है। लेकिन, घरेलू राजनीति से मजबूर कनाडा ने द्विपक्षीय रिश्तों ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय हितों को भी चोट पहुंचाई है।
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