बिनय पांडा: आजादी के समय सोचा गया था कि उच्च शिक्षण संस्थान देश की तरक्की में अहम भूमिका निभाएंगे, खासकर विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में। इन संस्थानों का मकसद था - Practical Skills डिवेलप करना, ज्ञान बढ़ाना और अच्छे संस्कार देना। अब करीब 8 दशक बाद हमें शिक्षा यानी ज्ञान और ट्रेनिंग यानी स्किल के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है।
कौशल जरूरी: सिर्फ किताबी ज्ञान कई काम के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता, नौकरी पाने के लिए व्यावहारिक कौशल भी जरूरी है। हां, यह सही है कि मेडिकल फील्ड, इंजीनियरिंग और विज्ञान में बरसों का अनुभव, प्रैक्टिकल स्किल्स और व्यावहारिक ज्ञान होना चाहिए, लेकिन तकनीकी संस्थानों को छोड़ दीजिए तो क्या देश के किसी उच्च शिक्षण संस्थान में कोई ऐसी स्किल सिखाई जाती है, जिससे नौकरी मिल सके?
ट्रेनिंग का असर: क्या प्रैक्टिकल स्किल्स पाने के लिए कॉलेज या यूनिवर्सिटी जाना जरूरी है? कोणार्क का सूर्य मंदिर या दिल्ली में कुतुब मीनार या आगरा में ताजमहल बनाने वालों ने कभी किसी स्कूल-कॉलेज या यूनिवर्सिटी से पढ़ाई नहीं की। बिना यूनिवर्सिटी गए उन लोगों ने इतनी सुंदर, गणित की नजर से इतनी सटीक ज्यामितीय संरचनाएं कैसे बना लीं? इसका जवाब है मेहनत और अभ्यास। उन लोगों ने बरसों अपने हुनर को निखारा।
इनोवेशन और इमेजिनेशन: यह सोचना गलत है कि आज के कॉलेज या यूनिवर्सिटी का काम स्टूडेंट्स को सिर्फ प्रैक्टिकल स्किल्स सिखाना है। यह तो किसी एक्सपर्ट के साथ काम करके भी सीखा जा सकता है। असल में उच्च शैक्षणिक संस्थानों को स्टूडेंट्स के भीतर कल्पना करने और इनोवेशन के बीज रोपने की जरूरत है। उन्हें यह सिखाना चाहिए कि रिसर्च के जरिए नई तकनीक कैसे बनाई जाती है और फिर बड़े पैमाने पर उसका इस्तेमाल कैसे होता है। एक मॉडर्न यूनिवर्सिटी को नए विचार और स्किल के बीच तालमेल सिखाना आना चाहिए।
चीन की सीख: चीन ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि अगर प्रैक्टिकल स्किल्स को बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाए, तो हाई-स्पीड रेल के 45 हजार किमी से ज्यादा काम को 20 साल से कम वक्त में पूरा किया जा सकता है। स्किल ही नौकरी दिलाती है। जब इस बड़े स्तर पर आजमाया जाए तो कोई भी देश तेजी से तरक्की कर सकता है। लेकिन, हमारे देश में जो नॉन-टेक्निकल विषय पढ़ाए जाते हैं, उनमें फोकस सिर्फ ज्ञान देने पर होता है और केवल ज्ञान से बहुत कम नौकरियां मिलती हैं। किसी ब्यूरोक्रेट, ट्रैफिक पुलिसकर्मी या मैनेजर का हुनर काम करते हुए निखरता है - यह कहीं पढ़ाया नहीं जाता।
स्पेशल कॉलेज: कोई भी उच्च शिक्षण संस्थान इतनी तरह के कौशल एक ही पाठ्यक्रम में नहीं सिखा सकता। यह बात सही है कि कॉलेज का अनुभव कुछ लोगों के लिए फायदेमंद हो सकता है, लेकिन क्या यह नौकरी पाने का सबसे अच्छा और प्रभावी तरीका है? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि भविष्य के प्रशासनिक अधिकारी और ट्रैफिक इंस्पेक्टरों को स्कूल के बाद ही चुन लिया जाए और उन्हें कई साल के लिए किसी स्पेशल कॉलेज में रखा जाए, जैसे नैशनल डिफेंस अकैडमी?
संसाधनों की बर्बादी: भारत में ग्रैजुएशन कोर्स में लगभग 3.4 करोड़ स्टूडेंट्स ने दाखिला लिया है। इनमें से करीब 60% को आगे चलकर ऐसे काम करने पड़ सकते हैं, जिनका उनकी पढ़ाई से कोई वास्ता नहीं। इसका मतलब कि करीब दो करोड़ स्टूडेंट्स जो पढ़ रहे हैं, वह उनके भविष्य से मेल नहीं खाता। क्या यह देश के संसाधनों की बर्बादी नहीं है? सवाल है कि कितने उच्च शिक्षण संस्थानों को व्यावहारिक कौशल सिखाने पर ध्यान देना चाहिए और कितनों को नया ज्ञान तैयार करने पर? याद रखिए, कौशल और ज्ञान के साथ अच्छा चरित्र भी जरूरी है। हर संस्थान में इस पर भी ध्यान दिया जाए।
सही आकलन हो: ज्ञान पर काम करने वाले संस्थान विचारकों को जन्म देते हैं। उनका आकलन इस आधार पर नहीं होना चाहिए कि वहां से कितनों को नौकरी मिली। यह आंकड़ेबाजी इंजीनियरिंग, मेडिकल या टेक्निकल कॉलेज और पॉलिटेक्निक के लिए रख सकते हैं। सही संतुलन पाने का तरीका है कि उन संस्थानों और स्टूडेंट्स की संख्या कम की जाए, जो उन विषयों में पढ़ और पढ़ा रहे हैं, जिनका स्किल व काम से ताल्लुक नहीं।
नई नौकरियां: भारत को अपनी आर्थिक तरक्की को बनाए रखने के लिए नई नौकरियां पैदा करनी होंगी। प्रशिक्षण केंद्रों और कॉलेज में एक से चार साल के कोर्स हों। युवाओं को इलेक्ट्रीशियन, प्लंबर, कंस्ट्रक्शन टेक्निशियन जैसे कोर्स कराए जाएं।
पिरामिड मॉडल: अमेरिकी अर्थशास्त्री Bryan Caplan ने अपनी किताब 'The Case Against Education: Why the Education System is a Waste of Time and Money' में तर्क दिया है कि उच्च शिक्षा का मानव संसाधन को बेहतर बनाने पर बहुत कम असर पड़ता है। आज की शिक्षा की तुलना बरसों की ट्रेनिंग से नहीं की जा सकती। उच्च शैक्षणिक संस्थानों की संरचना पिरामिड जैसी होनी चाहिए। नीचे के स्तर पर कौशल आधारित ट्रेनिंग देने वाले संस्थान हों। इनकी संख्या सबसे अधिक होनी चाहिए। पिरामिड के बीच में ज्ञान बांटने वाले संस्थान और सबसे ऊपर रिसर्च यूनिवर्सिटीज की जगह होनी चाहिए।
(लेखक JNU में प्रफेसर हैं)
कौशल जरूरी: सिर्फ किताबी ज्ञान कई काम के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता, नौकरी पाने के लिए व्यावहारिक कौशल भी जरूरी है। हां, यह सही है कि मेडिकल फील्ड, इंजीनियरिंग और विज्ञान में बरसों का अनुभव, प्रैक्टिकल स्किल्स और व्यावहारिक ज्ञान होना चाहिए, लेकिन तकनीकी संस्थानों को छोड़ दीजिए तो क्या देश के किसी उच्च शिक्षण संस्थान में कोई ऐसी स्किल सिखाई जाती है, जिससे नौकरी मिल सके?
ट्रेनिंग का असर: क्या प्रैक्टिकल स्किल्स पाने के लिए कॉलेज या यूनिवर्सिटी जाना जरूरी है? कोणार्क का सूर्य मंदिर या दिल्ली में कुतुब मीनार या आगरा में ताजमहल बनाने वालों ने कभी किसी स्कूल-कॉलेज या यूनिवर्सिटी से पढ़ाई नहीं की। बिना यूनिवर्सिटी गए उन लोगों ने इतनी सुंदर, गणित की नजर से इतनी सटीक ज्यामितीय संरचनाएं कैसे बना लीं? इसका जवाब है मेहनत और अभ्यास। उन लोगों ने बरसों अपने हुनर को निखारा।
इनोवेशन और इमेजिनेशन: यह सोचना गलत है कि आज के कॉलेज या यूनिवर्सिटी का काम स्टूडेंट्स को सिर्फ प्रैक्टिकल स्किल्स सिखाना है। यह तो किसी एक्सपर्ट के साथ काम करके भी सीखा जा सकता है। असल में उच्च शैक्षणिक संस्थानों को स्टूडेंट्स के भीतर कल्पना करने और इनोवेशन के बीज रोपने की जरूरत है। उन्हें यह सिखाना चाहिए कि रिसर्च के जरिए नई तकनीक कैसे बनाई जाती है और फिर बड़े पैमाने पर उसका इस्तेमाल कैसे होता है। एक मॉडर्न यूनिवर्सिटी को नए विचार और स्किल के बीच तालमेल सिखाना आना चाहिए।
चीन की सीख: चीन ने पूरी दुनिया को दिखा दिया कि अगर प्रैक्टिकल स्किल्स को बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाए, तो हाई-स्पीड रेल के 45 हजार किमी से ज्यादा काम को 20 साल से कम वक्त में पूरा किया जा सकता है। स्किल ही नौकरी दिलाती है। जब इस बड़े स्तर पर आजमाया जाए तो कोई भी देश तेजी से तरक्की कर सकता है। लेकिन, हमारे देश में जो नॉन-टेक्निकल विषय पढ़ाए जाते हैं, उनमें फोकस सिर्फ ज्ञान देने पर होता है और केवल ज्ञान से बहुत कम नौकरियां मिलती हैं। किसी ब्यूरोक्रेट, ट्रैफिक पुलिसकर्मी या मैनेजर का हुनर काम करते हुए निखरता है - यह कहीं पढ़ाया नहीं जाता।
स्पेशल कॉलेज: कोई भी उच्च शिक्षण संस्थान इतनी तरह के कौशल एक ही पाठ्यक्रम में नहीं सिखा सकता। यह बात सही है कि कॉलेज का अनुभव कुछ लोगों के लिए फायदेमंद हो सकता है, लेकिन क्या यह नौकरी पाने का सबसे अच्छा और प्रभावी तरीका है? क्या यह बेहतर नहीं होगा कि भविष्य के प्रशासनिक अधिकारी और ट्रैफिक इंस्पेक्टरों को स्कूल के बाद ही चुन लिया जाए और उन्हें कई साल के लिए किसी स्पेशल कॉलेज में रखा जाए, जैसे नैशनल डिफेंस अकैडमी?
संसाधनों की बर्बादी: भारत में ग्रैजुएशन कोर्स में लगभग 3.4 करोड़ स्टूडेंट्स ने दाखिला लिया है। इनमें से करीब 60% को आगे चलकर ऐसे काम करने पड़ सकते हैं, जिनका उनकी पढ़ाई से कोई वास्ता नहीं। इसका मतलब कि करीब दो करोड़ स्टूडेंट्स जो पढ़ रहे हैं, वह उनके भविष्य से मेल नहीं खाता। क्या यह देश के संसाधनों की बर्बादी नहीं है? सवाल है कि कितने उच्च शिक्षण संस्थानों को व्यावहारिक कौशल सिखाने पर ध्यान देना चाहिए और कितनों को नया ज्ञान तैयार करने पर? याद रखिए, कौशल और ज्ञान के साथ अच्छा चरित्र भी जरूरी है। हर संस्थान में इस पर भी ध्यान दिया जाए।
सही आकलन हो: ज्ञान पर काम करने वाले संस्थान विचारकों को जन्म देते हैं। उनका आकलन इस आधार पर नहीं होना चाहिए कि वहां से कितनों को नौकरी मिली। यह आंकड़ेबाजी इंजीनियरिंग, मेडिकल या टेक्निकल कॉलेज और पॉलिटेक्निक के लिए रख सकते हैं। सही संतुलन पाने का तरीका है कि उन संस्थानों और स्टूडेंट्स की संख्या कम की जाए, जो उन विषयों में पढ़ और पढ़ा रहे हैं, जिनका स्किल व काम से ताल्लुक नहीं।
नई नौकरियां: भारत को अपनी आर्थिक तरक्की को बनाए रखने के लिए नई नौकरियां पैदा करनी होंगी। प्रशिक्षण केंद्रों और कॉलेज में एक से चार साल के कोर्स हों। युवाओं को इलेक्ट्रीशियन, प्लंबर, कंस्ट्रक्शन टेक्निशियन जैसे कोर्स कराए जाएं।
पिरामिड मॉडल: अमेरिकी अर्थशास्त्री Bryan Caplan ने अपनी किताब 'The Case Against Education: Why the Education System is a Waste of Time and Money' में तर्क दिया है कि उच्च शिक्षा का मानव संसाधन को बेहतर बनाने पर बहुत कम असर पड़ता है। आज की शिक्षा की तुलना बरसों की ट्रेनिंग से नहीं की जा सकती। उच्च शैक्षणिक संस्थानों की संरचना पिरामिड जैसी होनी चाहिए। नीचे के स्तर पर कौशल आधारित ट्रेनिंग देने वाले संस्थान हों। इनकी संख्या सबसे अधिक होनी चाहिए। पिरामिड के बीच में ज्ञान बांटने वाले संस्थान और सबसे ऊपर रिसर्च यूनिवर्सिटीज की जगह होनी चाहिए।
(लेखक JNU में प्रफेसर हैं)
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