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Doctor's Day: डॉक्टर के पास जाकर 11 गलतियां कभी ना करें, वरना इलाज में हो जाएगी गड़बड़

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डॉक्टर्स डे पर स्टोरी: डॉक्टर के बिना न मरीज रह सकते हैं और न मरीज के बिना डॉक्टर। दोनों ही एक-दूसरे पर आश्रित हैं। कई बार दोनों अपने हक की बात तो करते हैं, लेकिन अपनी जिम्मेदारियों को भूल जाते हैं। कई बार जो उनके हक में नहीं होता, उस पर भी अपना अधिकार जताने लगते हैं। कई बार मरीज पूरी तैयारी के बिना ही डॉक्टर के पास चले जाते हैं। कई बार खुद ही अपने डॉक्टर बन जाते हैं।



इतना ही नहीं, कई बार तो लोग अपने परिवार का इलाज तक खुद शुरू कर देते हैं। यह गलत है। हम सभी के अधिकार हैं तो कुछ जिम्मेदारियां भी हैं। अगर डॉक्टर की जिम्मेदारी है कि वह मरीज की बातें सुने तो मरीज की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह बीमारी से जुड़ी जरूरी बातें ही डॉक्टर को बताए, न कि गैरजरूरी बातें और गूगल, इंटरनेट पर मिले ज्ञान को डॉक्टर पर थोपे।



जब पहली बार मिल रहे हों डॉक्टर से

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गूगल, AI आदि की मदद से लोग पहले ही अपनी बीमारी, इलाज आदि के बारे में जानकारी सर्च कर लेते हैं। रिसर्च करना अच्छी बात है लेकिन जब हम किसी डॉक्टर के पास पहली बार जाएं कोशिश यह होनी चाहिए कि उन्हें इंटरनेट वाला ज्ञान न दें बल्कि उन लक्षणों के बारे में बताएं जो खुद महसूस कर रहे हैं। फिर डॉक्टर को बीमारी समझने दें। उन्हें इलाज करने दें। अगली बार जाएं तो अपने अनुभव, उनके इलाज और रिसर्च के बाद जो सवाल मन में उठें, वे पूछें।



मरीज की जिम्मेदारियां

  • मरीज को अपनी बीमारी, पहले के इलाज, एलर्जी और दवाओं की जानकारी सही-सही देनी चाहिए।
  • डॉक्टर की ओर से किए जा रहे इलाज की समझ नहीं है तो इसके बारे में तुरंत बताना चाहिए।
  • हर मरीज को डॉक्टर, मेडिकल स्टाफ के निर्देश मानने चाहिए।
  • कोई मरीज सुझाए गए इलाज के लिए मना करता है तो नतीजों की जिम्मेदारी मरीज की होगी।
  • मरीज और उसके अटेंडेंट को शांति बनाए रखनी चाहिए। अभद्र भाषा का इस्तेमाल या शारीरिक हिंसा गलत है।
  • हर मरीज को डॉक्टर से तय की गई जांच, फॉलो-अप या इलाज की तारीखों पर पहुंचना चाहिए।
  • बिल का भुगतान समय पर करना है। स्मोकिंग आदि हॉस्पिटल में नहीं करनी चाहिए।


साड्डा हक: ये-ये हैं हर मरीज के अधिकार

  • मरीज के मेडिकल रेकॉर्ड को मरीज और उसके परिजन कभी भी देख सकते हैं और उसकी फोटोकॉपी मांग सकते हैं।
  • हर नए इलाज से पहले मरीज या अगर मरीज सहमति देने की स्थिति में न हो तो अटेंडेंट से सहमति लेना जरूरी है।
  • कोई इलाज या सर्जरी नहीं करवानी है तो मरीज को मना करने का अधिकार है।
  • हर मरीज को सम्मान पाने का अधिकार है और मरीजों की हर शिकायत का निपटारा भी होना चाहिए।
  • मरीज को हर तरह के खर्चों की जानकारी लेने का हक है। साथ ही, उसके इलाज की गोपनीयता बरते जाने का अधिकार भी है।
  • अगर कोई नॉनवेज नहीं खाता या लहसुन-प्याज आदि नहीं खाता तो मरीज को अस्पताल में अपनी इच्छा के अनुसार ही भोजन पाने का अधिकार है।
  • मरीजों और उनके परिजनों को हक है कि वे अगर अस्पताल के इलाज से संतुष्ट नहीं है तो अपनी संतुष्टि के लिए चाहें तो बाहर के डॉक्टर से सेकंड ओपिनियन ले सकते हैं।
  • इसके लिए अनुरोध किए जाने पर अस्पताल की जिम्मेदारी है कि वह चल रहे इलाज की समरी (सारांश) अस्पताल के लेटर पैड पर लिख कर दे ताकि मरीज या उसके परिजन उसे दिखाकर दूसरे डॉक्टर की राय ले सकें।
  • मरीजों और उनके परिजनों को हक है कि वे अस्पताल व डॉक्टरों की ओर से किए जा रहे इलाज से इनकार कर सकते हैं। इसके लिए अस्पताल प्रशासन दबाव नहीं बना सकता। मरीज किसी रिसर्च में भाग लेने से भी मना कर सकता है।
  • मरीज और उसके परिजनों की रजामंदी के बिना कोई भी इलाज या टेस्ट नहीं हो सकता।


डॉक्टर ऐसा न करें?

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  • बिना मरीज की जांच किए कोई दवा न लिखें।
  • तीसरे शख्स की मौजूदगी में मरीज को बीमारी की हिस्ट्री बताने या जांच के लिए मजबूर न करें।
  • जब डॉक्टर खुद बीमार हों, थकान हो या नशे में हों तो किसी मरीज की जांच न करें।
  • किसी प्रतिबंधित दवा को न लिखें।
  • अपनी योग्यता, अनुभव और विशेषज्ञता से बाहर का इलाज या सर्जरी न करें।
  • झूठा मेडिकल सर्टिफिकेट जारी न करें।
  • अगर मरीज या उसके अटेंडेंट इलाज के दौरान अस्पताल से जाना चाहें तो उन्हें मना न करें। इसके लिए पेपरवर्क करें।
  • ज्यादा दवाएं न लिखें।


ये 11 गलतियां न करें मरीज या उनके रिश्तेदार

1. गूगल या यूट्यूब से खुद अपना इलाज खोजना

सुपरफास्ट इंटरनेट का जमाना है तो मरीज लक्षणों को पढ़कर खुद ही बीमारी तय कर लेते हैं। कई बार अलग-अलग बीमारियों के एक जैसे लक्षण हो सकते हैं। ऐसे में कुछ बारीक फर्क होते हैं जिन्हें अमूमन डॉक्टर ही मरीज की स्थिति को देखकर समझ पाते हैं। अगर खुद इलाज करेंगे तो बीमारी को पहचानने और फिर दवा चुनने की गलती तो हो ही सकती है। साथ ही, दवा सिर्फ बीमारी देखकर ही नहीं दी जाती, मरीज की स्थिति, उम्र, वजन, दूसरी बीमारियों के बारे में जानकर, एलर्जी आदि को समझकर दी जाती है। कई बार तो फैमिली हिस्ट्री को भी डॉक्टर ध्यान में रखकर दवा और जांच लिखते हैं।



2. डॉक्टर्स शॉपिंग करना!

सुनने में यह भले ही अजीब लगे, पर आज की हकीकत है। मरीज या अटेंडेंट को उनके मन के मुताबिक अगर जरा-भी चीजें नहीं मिलीं या फिर किसी शख्स ने किसी दूसरे डॉक्टर की थोड़ी ज्यादा तारीफ क्या कर दी तो वे फौरन ही अपना डॉक्टर बदल लेते हैं। वैसे तो यह हर मरीज का हक है कि वह अपनी पसंद के डॉक्टर से ही इलाज कराए। लेकिन लगातार डॉक्टर बदलते रहने से कई बार फायदे से ज्यादा नुकसान हो जाता है। एक डॉक्टर जो पहले से उस मरीज के बारे में काफी कुछ जानता है, अचानक नए डॉक्टर के पास जाने से तमाम चीजें फिर नए डॉक्टर को भी बतानी पड़ती हैं। जांच करवानी होती हैं। हां, अगर किसी मरीज को लंबे समय तक फायदा न हो रहा हो तो उसे डॉक्टर बदलने के बारे में सोचना चाहिए।



3. लक्षण छुपाना या पूरी जानकारी न देना

यह सही बात है कि अगर डॉक्टर को अपनी बीमारी विस्तार से नहीं बताओगे तो मुमकिन है पूरी तरह ठीक नहीं हो पाओगे। ऐसे कई मामले सामने आते हैं जब मरीज परेशानी की शुरुआत का सही वक्त नहीं बताते। उन्हें इस बात पर शर्म आती है कि अगर सही वक्त बता दिया तो डॉक्टर और दूसरे लोग हंसेंगे कि परेशानी इतनी पुरानी थी और अब तक छुपा कर रखा था। कई बार लोग 5 साल पुरानी परेशानी को 5 महीने की परेशानी ही बताते हैं। इससे इलाज सही करना मुश्किल हो जाता है।



कुछ बीमारियों के लक्षण बताने में भी मरीजों को परेशानी होती है या शर्म आती है। खासकर, यौन संबंध आदि जुड़ी बातें। इसलिए वे सही लक्षण नहीं बताते या फिर छुपाने की कोशिश करते हैं। कुछ लोगों को सर्जरी, इंजेक्शन आदि से डर लगता है। इस वजह से अपने लक्षणों को छुपाते हैं या पूरी बात नहीं बताते। इससे भी बीमारी का सही इलाज नहीं हो पाता। बीमारी जब बाद में बड़ी बीमारी हो जाती है या लाइलाज हो जाती है तो बड़ी सर्जरी करवानी पड़ती है। इसके बाद मरीज पूरी तरह सही हो जाए, यह जरूरी भी नहीं। इसके अलावा खर्च भी ज्यादा हो जाता है।



4. कई नाव पर पैर रखना और बताना भी नहीं

आजकल मरीज एक पैथी के डॉक्टर को बताए बिना दूसरी पैथी से इलाज भी करवाने लगते हैं। जैसे कि कोई अपना इलाज एलोपैथी से करा रहा है तो बिना बताए आयुर्वेद, होम्योपैथी, यूनानी आदि से भी कराने लगता है। दूसरी विधाओं से इलाज करवाने में परेशानी नहीं है, पर सभी विधाओं के डॉक्टर को यह जरूर पता होना चाहिए कि मरीज क्या-क्या खा रहा है और क्या नहीं? कुछ गंभीर मामलों में जब दूसरी विधाओं में इलाज नहीं हो पाता, मामला खराब हो जाता है, तब एलोपैथी के पास मामला आता है। कई बार इलाज के लिए कीमती समय नष्ट हो जाता है। इससे जरूर बचना चाहिए।



5. अपनी पुरानी रिपोर्ट, पर्चा साथ न ले जाना

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इस तरह की गलतियां अक्सर हो जाती हैं। चाहे डॉक्टर बदला हो या फिर न बदला हो। हर मरीज को अपनी पुरानी बीमारियों से जुड़ी रिपोर्ट, एक्स-रे (मान लें, घुटने बदले गए हैं तो 5 साल पुराना एक्स-रे भी जरूरी हो सकता है) आदि साथ जरूर लेकर जाना चाहिए। साथ में डिस्चार्ज समरी भी होने चाहिए। इससे बीमारी के डिवेलपमेंट को समझना आसान हो जाता है।



6. लक्षण बिगड़ने तक इंतजार करना

गंभीर मामलों में देरी खतरनाक हो जाती है। मान लें किसी को ब्रेन स्ट्रोक या हार्ट स्ट्रोक आया हो तो गोल्डन पीरियड को यह सोचकर बिताना कि कुछ समय में सब ठीक हो जाएगा, पूरी तरह गलत है। जैसे ही लगे कि मामला गंभीर है या फिर स्ट्रोक के जरा भी लक्षण दिखें, फौरन ही अस्पताल लेकर जाना चाहिए।



7. टेस्ट रिपोर्ट खुद पढ़कर फैसला कर लेना

आजकल ब्लड रिपोर्ट ऑनलाइन मिल जाती है। इसे मरीज पढ़ भी लेते हैं और उम्मीद के हिसाब से रिपोर्ट न मिलने पर घबरा भी जाते हैं। नतीजा भी पहले ही तय कर लेते हैं। कई बार तो रिपोर्ट देखकर डॉक्टर के पास भी नहीं जाते और अपना नसीब मान लेते हैं। कुछ तो दवा भी नहीं शुरू करते। यह सब गलत है।



8. यह भी होती है एक तरह की गलती

कैंसर का एक गंभीर मरीज जिसके पास ज़िंदगी के शायद कुछ महीने ही बचे हों, ऐसे में डॉक्टर उस मरीज को क्या बताएगा कि वह कुछ महीनों का ही मेहमान है? ऐसा अक्सर नहीं किया जाता। ऐसे में डॉक्टर तसल्ली देते हैं। वे कहते हैं कि ठीक से रहें, ज़िंदगी एंजॉय करें, कुछ न कुछ अच्छा होगा। आपकी उम्र अभी बाकी है। कई बार उसी दौरान मरीज का अटेंडेंट विडियो बना रहा होता है। कुछ महीनों के बाद जब मरीज गुजर जाता है तो अटेंडेंट डॉक्टर से आकर शिकायत करता है और लड़ता है कि आपने तो ऐसा-ऐसा कहा था। मेरे पास सबूत भी है। यहां समझने वाली बात यह है कि कुछ बातें मरीजों को नहीं बताई जा सकतीं, उनका मनोबल बढ़ाना होता है।



9. भीड़ या नाम देखकर डॉक्टर चुनना

किसी भी डॉक्टर का चुनाव सिर्फ लोगों की भीड़ देखकर या डॉक्टर का नाम किसी के मुंह से सुनकर करना सही नहीं है। हमेशा यह फैसला सही नहीं हो सकता है। किस डॉक्टर से इलाज कराना है इसका फैसला उसकी डिग्री और अनुभव को देखकर करना चाहिए। मान लें कि किसी को लिवर से जुड़ी परेशानी है, ऐसे में शुरुआती स्तर पर तो फिजिशन से काम चल जाता है, लेकिन पूरा सही इलाज तो गैस्ट्रो के डॉक्टर ही कर सकते हैं।



10. फौरन रिजल्ट का दबाव बनाना

हर किसी को जल्दी ठीक होना है। अगर डॉक्टर ने कह दिया कि हर दिन ब्रिस्क वॉक करनी है, 30 से 40 मिनट एक्सरसाइज करनी है और डाइट भी सुधारनी है तो यह सोचना गलत है कि डॉक्टर ही बेकार है या फिर इतना हमसे न हो पाएगा। असल में अगर मरीज इतना नहीं कर सकते तो इसका सिर्फ एक ही उपाय है कि जब तक मुमकिन हो दवा की मात्रा बढ़ाते रहिए और दवाओं के साइड इफेक्ट्स भी झेलते रहिए।



11. केमिस्ट को डॉक्टर समझ लेना

कई लोगों को जब इंटरनेट पर पूरी तसल्ली नहीं होती तो वह दवा की दुकान पर केमिस्ट को ही एमबीबीएस, एमडी डिग्रीधारी डॉक्टर मानकर दवा पूछकर खाना शुरू कर देते हैं। यह पूरी तरह गलत है। डॉक्टर का काम डॉक्टर ही कर सकता है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें गलत दवा या ज्यादा पैनकिलर्स की वजह से लिवर, किडनी आदि खराब हो गई।



मरीज ऐसे कर सकते हैं शिकायत

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डॉक्टर और मरीज का संबंध भरोसे का होता है। फिर भी कभी-कभी भरोसा टूट जाता है। ऐसा तब होता है जब इलाज के दौरान मरीज किसी डॉक्टर की सर्विस से संतुष्ट न हों या इलाज के दौरान किसी बहुत बड़ी लापरवाही के सबूत मिलें या ऐसी लापरवाही की आशंका हो, जरूरी न होने पर भी सर्जरी कर दी गई हो, ज्यादा बिल बना दिया हो या मरीज के गुजरने पर भी उसे इमरजेंसी में रखकर बिल बढ़ाया जा रहा हो आदि।



ऐसे में मरीज और उनके अटेंडेंट के लिए डॉक्टर या अस्पताल के खिलाफ शिकायत करने का ही रास्ता बचता है। यह शिकायत स्टेट मेडिकल काउंसिल, नैशनल मेडिकल काउंसिल, इलाके की पुलिस समेत कई जगहों पर की जा सकती है। हालांकि कई बार मरीज के आरोप गलत भी हो सकते हैं।



किन-किन परिस्थितियों में हो सकती है शिकायत

1. लापरवाही: गलत इलाज करना, जरूरी जांच न करवाना, मरीज की असल स्थिति को अनदेखा करना, सर्जरी के दौरान गलती करना (सर्जरी राइट साइड की जगह लेफ्ट साइड की कर दी आदि), इलाज में दवा देने में गंभीर गलती करना, इलाज में जानबूझकर देरी जिससे बहुत नुकसान होना।



2. गलत बर्ताव: मरीज के साथ गलत व्यवहार करना, मरीज की सहमति के बिना इलाज करना, पैसे के लालच में गैरजरूरी जांच या दवा लिख देना जिसे साबित किया जा सके, गोपनीय जानकारी सार्वजनिक करना आदि। इनके अलावा यौन उत्पीड़न के खिलाफ शिकायत की जा सकती है। इनके अलावा भी कई मामले बन सकते हैं जिनमें शिकायत की जा सकती है।



डॉक्युमेंट्स रखें तैयार

  • शिकायत पत्र को हिंदी या इंग्लिश में साफ भाषा में विस्तार से लिखें।
  • मरीज की पहचान (आधार कार्ड, वोटर ID आदि)
  • प्रिस्क्रिप्शन, बिल, रिपोर्ट, डिस्चार्ज समरी आदि।
  • कुछ राज्यों में ऐफिडेविट (शपथ पत्र) भी मांगा जाता है।


कहां-कहां कर सकते हैं शिकायत

सेहत संवैधानिक रूप से राज्यों का विषय है। यही वजह है कि हर राज्य में स्टेट मेडिकल काउंसिल है। हालांकि इसके अलावा दूसरे भी विकल्प होते हैं। राज्य कांउसिल में ऑनलाइन शिकायत की जा सकती है। अगर कोई ऑफलाइन यानी डाक के माध्यम से शिकायत करना चाहे तो पूरी डिटेल और जरूरी कागजात की फोटोकॉपी के साथ शिकायत पत्र लगाकर भेज सकता है। वहीं, अगर कोई चाहे तो संबंधित राज्य काउंसिल में नीचे दिए पते पर सीधे जाकर भी शिकायत दर्ज करा सकता है।



राज्य मेडिकल काउंसिल (SMC)

यह अहम संस्था है जो डॉक्टरों के रजिस्ट्रेशन और उनके आचरण, कार्यशैली आदि की निगरानी करती है। अगर जांच में गड़बड़ी पाई जाती है तो डॉक्टर के रजिस्ट्रेशन को सस्पेंड भी किया जा सकता है।



एक्सपर्ट पैनल

  • डॉ. एस. के. सरीन, डायरेक्टर, ILBS
  • डॉ. गिरीश त्यागी, प्रेसिडेंट, दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन-डॉ. कौशल कालरा, हेड, मेडिकल ऑन्कोलॉजी, सफदरजंग
  • डॉ. अतुल मोहन कोछड़, CEO, NABH
  • डॉ. दलजीत सिंह, VC एंड हेड न्यूरो सर्जरी, MAX स्मार्ट


डिस्क्लेमर: यह लेख केवल सामान्य जानकारी के लिए है। एनबीटी इसकी सत्यता, सटीकता और असर की जिम्मेदारी नहीं लेता है। यह किसी भी तरह से किसी दवा या इलाज का विकल्प नहीं हो सकता। ज्यादा जानकारी के लिए हमेशा अपने डॉक्टर से संपर्क करें।

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