रांचीः नीतीश कुमार करीब 20 साल से (9 महीने छोड़ कर) बिहार के मुख्यमंत्री हैं। यह उनकी लोकप्रियता का एक प्रमाण है। उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर भी एक सर्वमान्य नेता के रूप में जाना जाता है। लेकिन इन तमाम खूबियों के बाद भी नीतीश कुमार अपने पड़ोसी राज्य में जनता दल यूनाइटेड का आधार नहीं बना सके। ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार ने झारखंड में पांव जमाने की कोशिश नहीं की। मेहनत भी की। जातीय कार्ड भी खेला। लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इसकी क्या वजह रही ?
जातीय समीकरण साधने की कोशिश
नवम्बर 2024 में झारखंड विधानसभा का चुनाव हुआ। इसके पहले जुलाई में नीतीश कुमार के सीएम आवास पर झारखंड चुनाव की तैयारियों को लेकर एक अहम बैठक हुई थी। यह बैठक झारखंड के कुर्मी और कोइरी नेताओं के आग्रह पर आयोजित की गयी थी। ये नेता झारखंड के जातीय समीकरण से नीतीश कुमार को अवगत कराना चाहते थे। इस बैठक की अध्यक्षता नीतीश कुमार ने की जिसमें झारखंड जदयू प्रदेश अध्यक्ष खीरू महतो, झारखंड के जदयू प्रभारी और जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा, बिहार सरकार के मंत्री अशोक चौधरी शामिल हुए। इस बैठक में झारखंड के नेताओं ने कहा, झारखंड में कुर्मी समुदाय खुद को जनजाति वर्ग में शामिल करने की लंबे समय से मांग कर रहा है। हम इस मांग का मजबूती से समर्थन करेंगे।
झारखंड में कुर्मी को अध्यक्ष पद सौंपा
नीतीश कुमार ने झारखंड में कुर्मी वोटरों को साधने के लिए खीरू महतो को 2022 में बिहार से राज्यसभा सांसद बनाया था। वे झारखंड के पहले कुर्मी नेता हैं जो राज्यसभा सांसद बने हैं। झरखंड में जदयू के जातीय समीकरण को मजबूत करने के लिए दो साल पहले से तैयारी चल रही थी। खीरू महतो को राज्यसभा में जदयू का सचेतक भी बनाया गया। लेकिन जब सीट बंटवारे में जदयू को केवल 2 सीटें मिलीं तो ये सारी तैयारियां निरर्थक हो गयीं। सीट शेयरिंग के बाद भाजपा ने 68, जदयू ने 2, आजसू ने 10 और लोजपा (आर) ने 1 सीट पर चुनाव लड़ा। जदयू ने भाजपा के पूर्व दिग्गज नेता सरयू राय को जमशेदपुर पश्चिम से टिकट दिया था। वे विजयी रहे। लेकिन तमाड़ सीट पर जदयू के दूसरे उम्मीदवार हार गये। इस सीट पर जदयू, झामुमो के सामने जातीय गोलबंदी करने में विफल रहा था।
जदयू का झारखंड में प्रदर्शन
झारखंड बनने के बाद पहला चुनाव 2005 में हुआ था। इस चुनाव में भाजपा और जदयू ने मिल कर चुनाव लड़ा था। सीट बंटवारे में जदयू को 18 सीटें मिलीं थीं जिसमें से वह 6 पर विजयी रहा था। 2009 में जदयू ने फिर भाजपा के साथ चुनाव लड़ा। 14 सीटों में से केवल 2 पर जीत मिली। 2014 में नीतीश कुमार भाजपा से गठबंधन तोड़ चुके थे। इस चुनाव में जदयू ने अकेले 11 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन खाता नहीं खुला। 2019 में भाजपा और जदयू अलग- अलग लड़े। जदयू ने 40 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन फिर जीरो पर आउट हो गया। लगातार दो जीरो से जदयू को जोरदार झटका लगा। 2024 में जदयू को जो एक सीट मिली वह पार्टी से अधिक प्रत्याशी की व्यक्तिगत जीत थी। सरयू राय झारखंड की राजनीति के वो बरगद हैं जिसे कोई हिला नहीं सकता।
जदयू से नहीं जुड़ पाये झारखंड के कुर्मी
जदयू ने शुरू में कुर्मी समुदाय पर कुछ पकड़ बनायी थी। लालचंद महतो, जलेश्वर महतो जैसे बड़े कुर्मी नेता जदयू से जुड़े थे। लेकिन बाद ने दूसरे दलों में चले गये। झारखंड में कुर्मी समुदाय को कुड़मी कहा जाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान और पारंपरिक व्यवसाय के आधार पर दोनों में समानता है। कुछ लोगों का मानना है कि अंतर सिर्फ उच्चारण (कुर्मी और कुड़मी) का है। झारखंड में कुड़मी समुदाय का मुख्य पेशा खेती है जब कि बिहार-उत्तर प्रदेश में भी कुर्मी समुदाय का मुख्य आधार कृषि ही है। सिर्फ भाषा के आधार पर कुड़मी और कुर्मी में अंतर किया जा सकता है। झारखंड के कुड़मी कुरमाली भाषा बोलते हैं जब कि बिहार-उत्तर प्रदेश के कुर्मी हिन्दी या हिंदी से निकली क्षेत्रीय भाषा बोलते हैं।
बिहार में कुर्मी, झारखंड में कुड़मी
झारखंड के कुड़मी खेती-किसानी से जुड़े हैं। उनका कहना है कि 1931 की जनगणना में कुड़मी को अनुसूचित जनजाति (ST) में शामिल किया गया था। लेकिन बाद में उन्हें आदिवासी कैटेगरी से हटा कर पिछड़ी जाति में कर दिया गया। इसलिए यह समाज खुद को आदिवासी कैटेगरी में शामिल किये जाने की लंबे समय से मांग कर रहा है। समय-समय पर बड़े आंदोलन भी हुए हैं। कुड़मी समाज आज भी जनजातीय संस्कृति के साथ आदिवासी लोगों के बीच रहता है। लेकिन आदिवासी समुदाय कुड़मी जाति की इस मांग का विरोध करता है। आदिवासी, कुड़मी को जनजाति नहीं मानते। वे अपने अधिकारों में बिल्कुल कटौती नहीं चाहते।
झारखंड में पहले से सक्रिय हैं कुर्मी नेता
झारखंड में आदिवासी समुदाय के बाद दूसरी सबसे आबादी कुड़मी (20 फीसदी) की है। झारखंड विधानसभा की करीब 20 सीटों पर कुड़मी (कुर्मी) वोटर निर्णायक हैं। लेकिन यहां कुर्मी जाति का कोई एक नेता नहीं बल्कि कई नेता हैं। कुर्मी वोटर कई पॉकेट में विभाजित है। कुड़मी समुदाय के सबसे बड़े नेता विनोद बिहारी महतो को माना जाता है जिन्होंने शिबू सोरेन के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की थी। आजसू अध्यक्ष सुदेश महतो, जयराम महतो भी प्रभावशाली नेता माने जाते है। झारखंड के लगभग सभी दल कुर्मी समुदाय को साधने की कोशिश में रहते हैं। चूंकि झारखंड में कुर्मी नेता पहले से सक्रिय हैं, इसलिए नीतीश कुमार को वहां अपना जातीय आधार बनाने में मुश्किल होती रही है। जिस दिन नीतीश कुमार झारखंड में भी कुर्मी नेता के रूप में स्थापित हो जाएंगे, उस दिन जदयू विस्तार हो जाएगा।
जातीय समीकरण साधने की कोशिश
नवम्बर 2024 में झारखंड विधानसभा का चुनाव हुआ। इसके पहले जुलाई में नीतीश कुमार के सीएम आवास पर झारखंड चुनाव की तैयारियों को लेकर एक अहम बैठक हुई थी। यह बैठक झारखंड के कुर्मी और कोइरी नेताओं के आग्रह पर आयोजित की गयी थी। ये नेता झारखंड के जातीय समीकरण से नीतीश कुमार को अवगत कराना चाहते थे। इस बैठक की अध्यक्षता नीतीश कुमार ने की जिसमें झारखंड जदयू प्रदेश अध्यक्ष खीरू महतो, झारखंड के जदयू प्रभारी और जदयू के कार्यकारी अध्यक्ष संजय झा, बिहार सरकार के मंत्री अशोक चौधरी शामिल हुए। इस बैठक में झारखंड के नेताओं ने कहा, झारखंड में कुर्मी समुदाय खुद को जनजाति वर्ग में शामिल करने की लंबे समय से मांग कर रहा है। हम इस मांग का मजबूती से समर्थन करेंगे।
झारखंड में कुर्मी को अध्यक्ष पद सौंपा
नीतीश कुमार ने झारखंड में कुर्मी वोटरों को साधने के लिए खीरू महतो को 2022 में बिहार से राज्यसभा सांसद बनाया था। वे झारखंड के पहले कुर्मी नेता हैं जो राज्यसभा सांसद बने हैं। झरखंड में जदयू के जातीय समीकरण को मजबूत करने के लिए दो साल पहले से तैयारी चल रही थी। खीरू महतो को राज्यसभा में जदयू का सचेतक भी बनाया गया। लेकिन जब सीट बंटवारे में जदयू को केवल 2 सीटें मिलीं तो ये सारी तैयारियां निरर्थक हो गयीं। सीट शेयरिंग के बाद भाजपा ने 68, जदयू ने 2, आजसू ने 10 और लोजपा (आर) ने 1 सीट पर चुनाव लड़ा। जदयू ने भाजपा के पूर्व दिग्गज नेता सरयू राय को जमशेदपुर पश्चिम से टिकट दिया था। वे विजयी रहे। लेकिन तमाड़ सीट पर जदयू के दूसरे उम्मीदवार हार गये। इस सीट पर जदयू, झामुमो के सामने जातीय गोलबंदी करने में विफल रहा था।
जदयू का झारखंड में प्रदर्शन
झारखंड बनने के बाद पहला चुनाव 2005 में हुआ था। इस चुनाव में भाजपा और जदयू ने मिल कर चुनाव लड़ा था। सीट बंटवारे में जदयू को 18 सीटें मिलीं थीं जिसमें से वह 6 पर विजयी रहा था। 2009 में जदयू ने फिर भाजपा के साथ चुनाव लड़ा। 14 सीटों में से केवल 2 पर जीत मिली। 2014 में नीतीश कुमार भाजपा से गठबंधन तोड़ चुके थे। इस चुनाव में जदयू ने अकेले 11 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन खाता नहीं खुला। 2019 में भाजपा और जदयू अलग- अलग लड़े। जदयू ने 40 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन फिर जीरो पर आउट हो गया। लगातार दो जीरो से जदयू को जोरदार झटका लगा। 2024 में जदयू को जो एक सीट मिली वह पार्टी से अधिक प्रत्याशी की व्यक्तिगत जीत थी। सरयू राय झारखंड की राजनीति के वो बरगद हैं जिसे कोई हिला नहीं सकता।
जदयू से नहीं जुड़ पाये झारखंड के कुर्मी
जदयू ने शुरू में कुर्मी समुदाय पर कुछ पकड़ बनायी थी। लालचंद महतो, जलेश्वर महतो जैसे बड़े कुर्मी नेता जदयू से जुड़े थे। लेकिन बाद ने दूसरे दलों में चले गये। झारखंड में कुर्मी समुदाय को कुड़मी कहा जाता है। सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान और पारंपरिक व्यवसाय के आधार पर दोनों में समानता है। कुछ लोगों का मानना है कि अंतर सिर्फ उच्चारण (कुर्मी और कुड़मी) का है। झारखंड में कुड़मी समुदाय का मुख्य पेशा खेती है जब कि बिहार-उत्तर प्रदेश में भी कुर्मी समुदाय का मुख्य आधार कृषि ही है। सिर्फ भाषा के आधार पर कुड़मी और कुर्मी में अंतर किया जा सकता है। झारखंड के कुड़मी कुरमाली भाषा बोलते हैं जब कि बिहार-उत्तर प्रदेश के कुर्मी हिन्दी या हिंदी से निकली क्षेत्रीय भाषा बोलते हैं।
बिहार में कुर्मी, झारखंड में कुड़मी
झारखंड के कुड़मी खेती-किसानी से जुड़े हैं। उनका कहना है कि 1931 की जनगणना में कुड़मी को अनुसूचित जनजाति (ST) में शामिल किया गया था। लेकिन बाद में उन्हें आदिवासी कैटेगरी से हटा कर पिछड़ी जाति में कर दिया गया। इसलिए यह समाज खुद को आदिवासी कैटेगरी में शामिल किये जाने की लंबे समय से मांग कर रहा है। समय-समय पर बड़े आंदोलन भी हुए हैं। कुड़मी समाज आज भी जनजातीय संस्कृति के साथ आदिवासी लोगों के बीच रहता है। लेकिन आदिवासी समुदाय कुड़मी जाति की इस मांग का विरोध करता है। आदिवासी, कुड़मी को जनजाति नहीं मानते। वे अपने अधिकारों में बिल्कुल कटौती नहीं चाहते।
झारखंड में पहले से सक्रिय हैं कुर्मी नेता
झारखंड में आदिवासी समुदाय के बाद दूसरी सबसे आबादी कुड़मी (20 फीसदी) की है। झारखंड विधानसभा की करीब 20 सीटों पर कुड़मी (कुर्मी) वोटर निर्णायक हैं। लेकिन यहां कुर्मी जाति का कोई एक नेता नहीं बल्कि कई नेता हैं। कुर्मी वोटर कई पॉकेट में विभाजित है। कुड़मी समुदाय के सबसे बड़े नेता विनोद बिहारी महतो को माना जाता है जिन्होंने शिबू सोरेन के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना की थी। आजसू अध्यक्ष सुदेश महतो, जयराम महतो भी प्रभावशाली नेता माने जाते है। झारखंड के लगभग सभी दल कुर्मी समुदाय को साधने की कोशिश में रहते हैं। चूंकि झारखंड में कुर्मी नेता पहले से सक्रिय हैं, इसलिए नीतीश कुमार को वहां अपना जातीय आधार बनाने में मुश्किल होती रही है। जिस दिन नीतीश कुमार झारखंड में भी कुर्मी नेता के रूप में स्थापित हो जाएंगे, उस दिन जदयू विस्तार हो जाएगा।
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