–समझौता न होने पर मामला वापस करना उसका कर्तव्यः हाईकोर्ट
Prayagraj, 09 अक्टूबर (Udaipur Kiran News) . इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि लोक अदालत को किसी पक्ष की अनुपस्थिति मात्र के आधार पर लम्बित शिकायत को खारिज करने का कोई अधिकार नहीं है. कोर्ट ने कहा कि जहां कोई समझौता या समाधान नहीं हो पाता है, वहां उसे मामले को सम्बंधित न्यायालय को वापस कर देना चाहिए.
न्यायमूर्ति अनीश कुमार गुप्ता की पीठ ने राजीव जैन की याचिका पर आदेश पारित करते हुए कहा कि लोक अदालत पक्षकारों की सहमति प्राप्त किए बिना तथा शिकायतकर्ता को कोई सूचना दिए बिना स्वप्रेरणा से मामले की सुनवाई नहीं कर सकती. इसके साथ ही पीठ ने 9 दिसम्बर, 2017 को लोक अदालत द्वारा पारित आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें शिकायतकर्ता की गैर-मौजूदगी के कारण चेक बाउंस की शिकायत को खारिज कर दिया गया था. साथ ही मामले को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, एटा को भेज दिया ताकि मामले को लोक अदालत में भेजे जाने और खारिज किए जाने के चरण से कानून के अनुसार निर्णय लिया जा सके.
महत्वपूर्ण बात यह रही कि पीठ ने लोक अदालत से सम्बंधित न्यायिक अधिकारी की ’गैर-जिम्मेदाराना’ कार्रवाई पर भी आपत्ति जताई, जिसमें उन्होंने चेक अनादर मामले को परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के तहत स्वप्रेरणा से लिया और उसके बाद शिकायतकर्ता की अनुपस्थिति के कारण उसे खारिज कर दिया.
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा, “यह मामला लोक अदालत में मामले की सुनवाई करते समय सम्बंधित न्यायिक अधिकारी की ओर से की गई गैर जिम्मेदाराना और अनधिकृत कार्रवाई का सबसे गंभीर उदाहरण है. इसलिए, इस सम्बंध में सम्बंधित न्यायिक अधिकारी को चेतावनी जारी की जाए ताकि वह भविष्य में ऐसी घटना की पुनरावृत्ति न करें.“
मामले के अनुसार यह याचिका राजीव जैन द्वारा ब्रह्म कुमार के विरुद्ध धारा 138 एनआई अधिनियम के तहत दायर एक शिकायत से उत्पन्न हुई थी. शिकायत को अभियुक्तों को तलब करने के लिए बहस के लिए सूचीबद्ध किया गया था. मामले की सुनवाई नियमित अदालत में 13 दिसंबर, 2017 के लिए निर्धारित की गई.
हालांकि, शिकायतकर्ता की सहमति के बिना और उसे कोई सूचना दिए बिना, फाइल को 9 दिसम्बर, 2017 को लोक अदालत में ले जाया गया और शिकायत को धारा 203 सीआरपीसी के तहत इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि शिकायतकर्ता उपस्थित नहीं था. कोर्ट के समक्ष मूल शिकायतकर्ता-याचिकाकर्ता ने कहा कि लोक अदालत में मामला उठाने के लिए उनकी ओर से कभी सहमति नहीं दी गई, जो मामले को लोक अदालत में भेजने की पूर्व शर्त थी.
न्यायालय ने यह भी कहा कि जब तक पक्षकार सहमत होकर समझौता नहीं कर लेते, तब तक लोक अदालत द्वारा कोई निर्णय नहीं दिया जा सकता. न्यायालय ने पाया कि वर्तमान मामले में किसी भी पक्ष ने मामले को लोक अदालत में भेजने के लिए सहमति नहीं दी थी. विपक्षी को समन भी नहीं किया गया था और संदर्भ के लिए कोई आवेदन भी रिकॉर्ड में नहीं था.
न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 482 के तहत आवेदन को स्वीकार कर लिया और 9 दिसम्बर, 2017 के लोक अदालत के आदेश को रद्द कर दिया तथा निर्देश दिया कि ट्रायल कोर्ट मामले को उसी चरण से आगे बढ़ाए, जिस चरण पर यह संदर्भ से पहले पहुंचा था.
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(Udaipur Kiran) / रामानंद पांडे
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