आपातकाल के दौरान लोगों को अमानवीय यातनाएं दी गईं: नरेन्द्र भदौरिया
लखनऊ,25 जून (Udaipur Kiran) । इंदिरा गांधी ने भारत में अपने परिवार की स्थायी सत्ता स्थापित करने के लिए आपातकाल लागू किया था। 26 जून 1975 से इस तानाशाही का दुर्दांत कालखंड प्रारंभ हुआ। पूरे देश में भय फैलाने के लिए यातनाओं का नंगा नाच शुरू कर दिया गया। इक्कीस महीनों की इस तानाशाही के दौरान 42 हजार लोगों को जेलों में ठूंस दिया गया।
फिर भी, लोकतंत्र की रक्षा के लिए इस आतातायी तंत्र के विरुद्ध देश ने हुंकार भरी और इंदिरा को सत्ता से बाहर कर दिया। भारत की नौकरशाही उस अवधि में इंदिरा के इशारों पर जिस तरह थिरक रही थी, वह दृश्य भयावह था। देशभर में बिरले ही ऐसे नौकरशाह रहे होंगे जिन्हें चाटुकारिता से घिन आती रही हो। यह जानकारी वरिष्ठ पत्रकार नरेन्द्र भदौरिया ने दी। नरेन्द्र भदौरिया ने स्वयं आपातकाल के दौरान काम किया है। उन्होंने बताया कि उस समय
मुख्यमंत्री और मंत्री तक इतने डरे रहते थे कि हर समय उनकी यही चिंता होती कि जनता को त्रस्त करने के लिए वे और कितने निष्ठुर बनें, और इंदिरा-संजय गांधी की अधिक प्रशंसा करें।
लखनऊ की वीभत्स घटना
नरेन्द्र भदौरिया ने आपातकाल के दौरान एक घटना के बारे में बताया कि एक रात ऐसी हृदयविदारक घटना घटी जिसमें न जाने कितनी जानें चली गईं। ज़हर देकर न केवल आवारा जानवर, बल्कि मलिन बस्तियों के निरीह बच्चे और भिखारी भी मारे गए।
शहरों में गायें, कुत्ते, गधे व दुधारू पशु घूमते रहते हैं — यह एक सामान्य बात है। सामान्य दिनों में भी इन पशुओं को हटाया जाना चाहिए, लेकिन प्रशासन की लापरवाही बनी रहती है। इन मदों में धन आता है, परंतु उसका उपयोग नहीं होता।
आपातकाल के दौरान लखनऊ के एक अधिकारी को एक ही रात में राजधानी को आवारा कुत्तों और मवेशियों से मुक्त कराने का जुनून सवार हो गया। कमिश्नर को विश्वास में लिया गया। नगर निगम, पुलिस—सभी साथ हो गए।
रात में ज़हर में डूबी हुई डबल रोटियाँ पूरे महानगर की सड़कों, गलियों और मलिन बस्तियों में बिखेर दी गईं। सैकड़ों कर्मचारियों और दर्जनों अधिकारियों ने लाखों रुपये खर्च कर इस वीभत्स तांडव को अंजाम दिया।
सुबह का मंजर और जनाक्रोश
अगली सुबह, लखनऊ का दृश्य अत्यंत भयावह था। जहर में भिगोई हुई रोटियों को कुत्तों ने तो खाया नहीं। गाय, साँड़, बछड़े और दुर्भाग्यवश भिखारियों के कुछ मासूम बच्चे मृत पाए गए। जिन्होंने अनजाने में ज़हर मिली रोटियाँ खा ली थीं।
जनता में हाहाकार मच गया। पुलिस तैनात कर लोगों को घरों में रहने की चेतावनी दी गई। नगर निगम की गाड़ियों से शवों को उठाकर शहर से बाहर फेंका गया। लखनऊ के लोग उस सुबह दाँत पीसते हुए यह अन्याय सहने को मजबूर थे। कोई विरोध नहीं कर सका, क्योंकि इमरजेंसी थी — विरोध का अर्थ था यातना और जेल।
घटना को दबाया गया
कुछ पत्रकारों ने यह वीभत्स कांड उजागर करने का निश्चय किया। लखनऊ के एक अख़बार में समाचार छपने वाला था। रात में पुलिस ने अफसरों को सूचना दी और वे तत्काल प्रेस पहुँच गए। मशीन की प्लेट उतरवा दी गई और अखबार का संस्करण बिना उस खबर के प्रकाशित किया गया।
इसके बाद तो पूरे देश में यह नियम बना दिया गया कि हर अखबार में एक सरकारी अधिकारी तैनात रहेगा जो तय करेगा कि क्या छपेगा और क्या नहीं।
घटना का खुलासा और प्रशासन की निर्लज्जता
यह घटना आपातकाल की समाप्ति के बाद तरुण भारत में छपी। नरेंद्र भदौरिया उस समय तरुण भारत के संपादक थे। प्रमुख संवाददाता अशोक त्रिपाठी थे। वे आपातकाल के समय स्वतंत्र भारत में कार्यरत थे। उन्होंने यह समाचार दिया, जो आपातकाल के बाद प्रकाशित हो सका।
दुखद बात यह है कि इस वीभत्स कांड के लिए कोई भी प्रशासनिक या पुलिस अधिकारी दंडित नहीं किया गया। इसके विपरीत, वे पुष्पगुच्छ लेकर मंचों की परिक्रमा करते दिखे। जिन पर कार्रवाई होनी थी, वे सम्मानित हो रहे थे।
उन्नाव में हुआ और भी भयानक अत्याचार
नरेन्द्र भदौरिया ने बताया कि उन्नाव जिले में भी आपातकाल के दौरान लोकतंत्र समर्थकों पर भयावह अत्याचार हुए। कई कार्यकर्ताओं को बेलन से जांघें कुचलने, नाखूनों में आलपिन घुसाने, प्लास से नोचने, जूतों से पीटने जैसी अमानवीय यातनाएं दी गईं। मरणासन्न स्थिति में जेल से छूटने वाले पाँच लोकतंत्र सेनानियों की बाद में मृत्यु हो गई।
इन परिवारों की सुध लेने वाला कोई नहीं था — केवल आरएसएस के स्वयंसेवक और प्रचारक ही उनके साथ खड़े रहे। उस समय उन्नाव में वीरेन्द्र सिंह संघ के जिला प्रचारक थे।
इंदिरा गांधी की तानाशाही के प्रहार सहने वाले सामान्य नगरवासी, ग्रामीण और उपेक्षित समाज के लोग ही थे। ये वही भारतीय हैं जिनमें विपत्ति आने पर परस्पर भेदभाव नहीं दिखता। जब देश को जरूरत होती है, ये मूक व नि:स्वार्थ लोग खड़े हो जाते हैं। उनके प्रति सम्मान और आदर प्रकट करना हमारा कर्तव्य है।
(Udaipur Kiran) / बृजनंदन
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